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  गीता एक अर्थ में अदभुत ग्रंथ है। न कुरान इस अर्थ में अदभुत है, न बाइबिल इस अर्थ में अदभुत है, न महावीर के वचन, न बुद्ध के, इस अर्थ में अदभुत हैं। किसी और अर्थ में वे सारी चीजें अदभुत हैं। लेकिन गीता एक विशेष अर्थ में अदभुत है कि उसमें सब तरह के व्यक्तियों के मार्गों की चर्चा हो गई है। उसमें सब तरह की संभावनाओं पर चर्चा हो गई है, क्योंकि अर्जुन पर कृष्ण ने सभी तरह की संभावनाओं की बात की है। एक-एक संभावना बेकार होती गई है, वे दूसरी संभावना की बात करते चले गए हैं। ऐसे अर्जुन के बहाने कृष्ण ने प्रत्येक मनुष्य के लिए संभावना का द्वार खोल दिया है। लेकिन उससे उलझन भी पैदा हुई। उलझन यह पैदा हुई कि कृष्ण जब सांख्य की बात करते हैं, तो वे कहते हैं, सांख्य परम है। तब वे ऐसे बोलते हैं, जैसे वे सांख्य स्वयं हैं। बोलना ही पड़ेगा। जब वे योग की बात करते हैं, तो लगता है, योग परम है। जब वे भक्ति की बात करते हैं, तो लगता है कि भक्ति परम है। इससे एक उपद्रव जरूर हुआ। वह उपद्रव यह हुआ कि भक्त ने पूरी गीता में से भक्ति निकाल डाली। निकाल ली भक्ति और पूरी गीता पर भक्ति को थोप देने की कोशिश की। रामानुज, वल्लभ,